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“दर्द की पैदावार”

कलम...
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बंजर दिल की  खाई में इक ऐसी जगह है ,

जँहा बची उपजाऊ जमीन पर मुर्दा दर्द फिर से उगता है !

जँहा जख्मों  की लाशो के  लाखो पेड़ अब तक ज़िंदा हैं ,

जँहा कान लगाकर  बहरा जिस्म फिर से सुनता है

***


रोज खुदता-खुलता  है जिस्म वंहा भ्रूण ह्त्या की कुदालो से,

वासना की घिनोनी डकैती अक्ल में काला छुरा घोंपता है,

वंहा दिल खुद पालता है दर्द के बगीचे कुकिस्मों के ,

वंहा कब्रों में बगावत का चन्दन उगता है !


***


जँहा दर्द उघाड़ता है दिल पर मढ़ी अंधेपन की परत,

और हर शिखंडी रोंगटे से तमाचा मार के पूछता है !

पूछता है गिरेबान पकड़ मासूमों की तस्करी-मजदूरी को,

बूढ़े माँ-बाप के त्यजने को बेटन से पीट-पीट पूछता है !


***


वंहा दर्द की पैदावार की कोई जात नहीं ,

वो हर मजहब-रंग के आंसू से खुल के गले मिलता है !

जँहा जीभकटा दर्द गूंगा बना नहीं रहता,

जो मुझे मर जाने या कर जाने के लिए कहता है !


***


जँहा दर्द पेट भरने को खुराक नहीं खाता,

बस पीता है बेबसी और बेइज्जती का नरक !

जँहा दर्द निकल पड़ा है कफ़न बांधे, पर शायद अभी गफलत है ,

जो कर रहा है अभी इन्सान और हैवान  का फरक !


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