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पिता जी पठार है ,
अडिग हिमालय अवतार है !
पूरब के सूरज से पक्के ,
आदर्श,उसूलों से भीष्माचार है !
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ललाट से छिटकती कौमुदी हिमकर ,
भृकुटियों में मर्यादा सार है !
बाजुओं में साधे हर दुशाध्य ,
पिता जी गुणों के गुलाब हैं !
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भुटिया खुय्याणी से कड़क तीखे ,
पर मीठी चाशनी भी अपार हैं !
मितभाषी निरीह पिता जी ,
प्रेम पावस की शीतल बयार हैं !
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सुख के अकाल में भी ,
सजीले हरे सावन है पिता जी !
विषमताओ के जेठ में भी,
खुशियों के चेरापूंजी मेघ हैं पिता जी !
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सत्य उपासक सत्यनुयायी तात,
लोलुपता धूर्तता से बेजार हैं !
ईमानदारी की पावन मूरत ,
हर अन्याय पर चंद्रहास हैं !
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भोले हैं सरल भोलेनाथ से ,
सर्वजन प्रेमी नारायणी विचार हैं !
इंसानियत के पालक-पोषक ,
अरिओं के महाकाल हैं !
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चाँदी-चन्दन के पलने में पाला मुझको ,
चैन-सुकून के स्वर्ण बिछोने पर सुलाया !
मै घुटुरनि था घिसटता ,
मुझे खड़ा किया,उड़ना सिखाया !
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लाकर दिए मट्टी-काठ चंद्रमा से ,
हर हठ-जिद्द पर तारों तक को दिलवाया !
शिक्षा का अनमोल वरदान दिया ,
किस्मत को चमकता मार्तंड बनाया !
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और सिखाया सुन्दरता का अर्थ सद्कर्म ,
मानवता ही सबसे बड़ा धर्म !
सबक के आत्मसम्मान सबसे बड़ी पूंजी ,
चरित्र का खोना है सबसे बड़ा हनन !
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कभी नीम सी डांट-डपट की घोटन-घुट्टी पिलाते है ,
कभी कभी बदन पर बेंत उगाते है पिता जी !
जानता हूँ गीली नर्म मिटटी हूँ जीवन चाक पर,
मेरे सारे दोष काट-छांट मुझे गुणी बनाते है पिता जी !
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मै चाहे मुट्ठी मे आसमा लाकर दिखा दूँ ,
पर मीठी झड़क से ही काम चलाते है पिता जी !
उनके अधरों पर चाहे ना खिले शाबाशी ,
पर उनके फूले सीने से जान जाता हूँ जी !
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होता हूँ कमजोर,बीमार बहुत जब ,
जग कर बगल मे सारी रात बिताते है पिता जी!
मै चाहे कुछ भी न बोलूं जुबां से ,
पर मेरा दर्द जान जाते हैं पिता जी !
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मेरे सपनो की खातिर त्यागी बन ,
बदन को अथक मशीन बनाते हैं पिता जी !
रोज शाम लाते है आम,चाकलेट और जलेबी,
मेरे एक आंसूं पर तड़प जाते है पिता जी !
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किवदंती जो पिता चरणों मे समय बिताते हैं ,
पिता हित मे हँसते हँसते वन को जाते है !
बस वो ही राम, श्रवण बैकुंठ पंहुचते है ,
बस वो ही तातप्रेमी मोक्ष को पाते हैं !
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निर्गुण निराकार हैं पिता जी ,
मेरे लिए मंदिर,मजार ,चार धाम है पिता जी !
मेरी निर्जन पतवार के खेवनहार,
मेरे अराध्य इष्टदेव, सर्व संसार ” परमपूज्य पिता जी ” !
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