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मैं मौत से क्यूँ डरु,

कलम...
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मैं मौत से क्यूँ डरु,

मै जो हर रोज हर लम्हा,

मरता हूँ तडपता हुआ हजारो जिंदगियां !

डरता हूँ मगर जिन्दगी से,

जो पैदा कर रही है हर पल इक नई मौत !

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मौत अपनी ही आज़ादी की,

मेरे पहचान की दर्दनाक मौत,

मौत मुंह के निवाले की बेमतलब,

खुद अपने हाथो से करनी पड़ी मन की मौत !

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मौत अभिव्यक्ति की मौत,

घुट घुट कर अस्तित्व की मौत,

खून ईमान का,

मेरे जमीर की मौत,

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यद्यपि फिर भी देखोगे तुम मुझे,

रोते बिलखते आंसू बहा बहा ,

गिड़गिड़ाकर मांगते हुए,

चंद सांसे मौत से जिन्दगी के लिए,

कुछ और नई मौते जिन्दगी से जीने के लिए !

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तुम चाहे फब्तियां कसते रहो मुझ पर,

चाहे लाख झूठा बताओ मुझे,

मगर ये निर्मम सत्य है,

झूठ की तरह,

मुझे जिन्दगी से प्यार है,

मौत की खातिर !

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